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बचपन

संजय सिंह "कवि मन"
संजय सिंह "कवि मन"
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मित्रों बिहार मिड डे मील की घटना ने एक बार फिर से भारत के बचपन को लहूलुहान कर दिया हैं. बिहार मिड डे मील की घटना में काल के गाल में समाये मासूम बच्चों को मेरी तरफ से श्रधांजलि अर्पित करती मेरी ये प्रस्तुति. आशा है आप सब मेरे भारत के बचपन का संघर्ष समझने की कोशिस करेंगे और उसे पुनः लहूलुहान होने से बचाने में अपना अमूल्य योगदान देने का प्रयत्न करेंगे.

बचपन

शायद बचपन से ही बोझ उठाता है|
कभी गलियों में कबाड़ बीनता,
चाय की दूकान पर मार खाता |
और सडको पर जूते पालिश करता हुआ,
मुझको रोज मिल जाता है|
मेरे भारत का बचपन, शायद बचपन से ही बोझ उठाता है|

झुग्गी झोपड़ियो में रहता,
भाई बहनों के आंसू पोछता|
माँ को नित ढाढस बांधता,
और पिता की दारु का भी, रोज खर्च उठाता है|
मेरे भारत का बचपन, शायद बचपन से ही बोझ उठाता है|

गर्मी में पसीना बहाता,
बारिश में संघर्ष करता|
हाल्फ पैंट और हाल्फ शर्ट में ही,
पूरी सर्दी भी काट जाता है|
मेरे भारत का बचपन, शायद बचपन से ही बोझ उठाता है|

जब हम सोते चादर तानकर,
वह तड़के ही उठ जाता है|
दिन भर की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी,
शायद दो जून की ही रोटी जुटा पाता है|
कभी कभी तो कुछ खा भी लेता,
पर अक्शर भूखे पेट ही सो जाता है|
मेरे भारत का बचपन, शायद बचपन से ही बोझ उठाता है|

पूरी हलवे की परवाह नहीं,
अब अच्छे कपड़ो की भी चाह नहीं|
बस सिर्फ चंद टुकड़े देख रोटी के,
मन हीं मन ललचाता है |
मेरे भारत का बचपन,शायद बचपन से ही बोझ उठाता है|

हम तो टूट जाते सिर्फ ६ घंटो की मेहनत से ही,
वह बिना छुट्टी रोज काम पर आता है|
चाहे जितने संकट आये दिन प्रतिदिन, वह फिर भी तो मुस्काता है,
९ – १० वर्ष की आयु में भी इतनी उर्जा कहा से लता है|
रोज खड़ा सड़क किनारे न जाने, मुझको क्या बतलाता है,
जीवन है संघर्ष शायद, जीवन का सार सिखाता है|

मेरे भारत का बचपन, शायद बचपन में ही मिट जाता है|
क्योंकि,
मेरे भारत का बचपन, बचपन से ही बोझ उठाता है|

प्रस्तुति-
संजय सिंह,”बैरागी”
न सम्मान की चाह,न अपमान का भय

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