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उलझन

संजय सिंह "कवि मन"
संजय सिंह "कवि मन"
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हम सब के जीवन की उलझन जिससे हम और आप सब रोज़ रोज़ रूबरू होते रहते | अपनी और आप सब की रोज़मर्रा की उलझन को समर्पित प्रस्तुति |

उलझन

जीवन के भंवर मे, खुद को उलझाये बैठा हूँ,
आया था क्या करने, कहाँ खुद को फँसाये बैठा हूँ |
सोचता हूँ बैठ कर कि, मंजिल मेरी क्या होगी,
क्या करना है, क्या करूँ, न जाने कितने प्रश्नों को,
दिल से लगाये बैठा हूँ |

आया था क्या करने, कहाँ खुद को फँसाये बैठा हूँ |…………………………

इंसान हूँ, इंसानियत है मजहब मेरा,
कहाँ खुद को, जाति धर्म के बन्धनों में फँसाये बैठा हूँ |
भूल गया हूँ ईश्वर को शायद,
और पैसे को खुदा बनाये बैठा हूँ |
आया था क्या करने, कहाँ खुद को फँसाये बैठा हूँ |……………………………

माँ की तबियत कैसी है,
पिता ने जीवन भर कितनी मेहनत की है |

बहन का घर कैसा होगा,
भाई का फ्यूचर क्या होगा |

शायद इन प्रश्नों को भी,
खुद से विसराये बैठा हूँ |

एक सुन्दर सी पत्नी के चक्कर मे,
खुद को रमाये बैठा हूँ |

आया था क्या करने, कहाँ खुद को फँसाये बैठा हूँ |………………………………
मेरी मिट्टी की, वो सोंधी सी खुश्बू,
और मेरे खेतो की हरियाली |

मेरे घर का वो आँगन, जिसके बूढ़े नीम पर,
खेला था मै डाली – डाली |

आज उन सबकी, सिर्फ यादे ही बसाये बैठा हूँ |

आया था क्या करने, कहाँ खुद को फँसाये बैठा हूँ |………………………………

भूल गया हूँ, दादी और नानी की कहानियो को,
मेरे दादा व नाना की गोंदी भी, मुझे अब याद नहीं |

बचपन के सारे खेल और खिलौने भूला,
उन सच्चे दोस्तों की भी , अब परवाह नहीं |

टीवी और कंप्यूटर को ही, अब अपनी दुनिया बनाये बैठा हूँ,

आया था क्या करने, कहाँ खुद को फँसाये बैठा हूँ |……………………………
जीवन के भंवर मे, खुद को उलझाये बैठा हूँ………………………………………

प्रस्तुति-
संजय सिंह,”बैरागी”
न सम्मान की चाह,न अपमान का भय

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