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चल पड़ा हूँ, मैं………………………………………..

संजय सिंह "कवि मन"
संजय सिंह "कवि मन"
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आज पुनः एक बार,

फिर से,

छला गया हूँ,मैं,

पुनः एक बार,

फिर से,

नियति भारी पड़ी हैं,

मेरी मेहनत पर,

दिमाग हार चुका है,

लेकिन,

दिल ने धडकना बंद नहीं,किया,

बोझिल हो गये हैं,कदम,

लेकिन,

चलना बंद नहीं किया,

ड़बडबा आयीं हैं,आँखें,

लेकिन,

सपने देखना बंद नहीं,किया,

मैंने,

पुनः एक बार,

फिर से,

सीखा हैं,कुछ नया सा,

जाना हैं,

खुदगर्ज़ दुनिया,और,

बेगैरत लोगों के बारे में,

सोचा हैं,

उन्होंने,कि,

थक कर हार जाऊंगा, मैं,

और,

खींच लूँगा पीछे, अपने कदम,

खुश हैं,

वो,

मुझ पर पुनः, प्रहार करके,

पुनः एक बार,

फिर से,

भूल की,हैं,उन्होंने,

मुझे समझने की,

पर,

पुनः एक बार,

फिर से ,

धन्यवाद किया हैं,

मैंने,

ईश्वर, का,

मज़बूत किया हैं,

अपने इरादों को,

उठाया हैं,अपने कन्धों को,

भरोसा किया हैं,अपनी भुजाओं पर,

पुनः एक बार,

फिर से ,

चुनौती दी,हैं, नियति को,

देखा हैं,एक नया सपना,

दी हैं, आँखों को नयी चमक,

दिमाग को नयी, उर्जा,

और,

दिल को धड़कने का,साहस,

आगे बढ़ाया हैं, अपने क़दमों को,

क्यों,की,

बिना विष पियें,

कोई शंकर नहीं बनता,

नीलकंठ नहीं कहलाता,

अत:

पुनः एक बार,

फिर से ,

चल पड़ा हूँ, मैं…………………………………………………………………………………..

प्रस्तुति-

संजय सिंह,”बैरागी”

न सम्मान की चाह,न अपमान का भय

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