(1) इन्तहा हो गयी अब जुल्म की सहते हुएं,
एक जमाना सा गुजर गया है सिसकते हुए,
अब हिम्मत भी न बाकी रही आइना देखने की,
न जाने कब देखा था आईने ने मुझको सवरतें हुए |
संजय सिंह “भारतीय”
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